Sindhu Ghati Sabhyata【सिंधु घाटी सभ्यता】इतिहास, तथ्य और मैप

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धरती पर इंसान के विकास का क्रम लाखों सालों से चला आ रहा है, इंसानी सभ्यताओं की बात करें तो यह हजारों सालों पुरानी है, जहां ये विकसित हुई और फिर समाप्त हो गई, विश्व में ऐसी बहुत सी सभ्यताओं की मौजूदगी का पता चला है, जिससे मनुष्य के इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है, भारत में भी ऐसी ही एक सभ्यता है जिसे “सिंधु घाटी सभ्यता” के नाम से जाना जाता है।

Hello Friends, स्वागत है आपका हमारे ब्लॉग पर आज हम बात करने जा रहे है, सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में, यह सभ्यता क्या है, इसकी शुरुआत, इतिहास, संस्कृति और इसके समाप्त होने के कारणों के बारे में भी पता करेंगे, उम्मीद करता हूँ आपको यह लेख पसंद आएगा।

Table of Contents

सिंधु घाटी सभ्यता क्या है? Sindhu Ghati Sabhyata In Hindi –

Sindhu Ghati Sabhyata In Hindi
Sindhu Ghati Sabhyata In Hindi

भारतीय इतिहास में, सिन्धु घाटी सभ्यता का अत्यधिक महत्व है क्योंकि इस सभ्यता की खोज के पूर्व मौर्य काल से पहले की पुरातात्विक सामग्री के विषय में बहुत कम जानकारियाँ उपलब्ध थी।

सिन्धु सभ्यता की खोज ने भारतीय इतिहास एवं संस्कृति में एक सुनहरा अध्याय जोड़ दिया, जिसने मानव विकास को समझने में काफी मदद की।

यह सभ्यता मिस्र, मैसोपोटामिया, आदि की सभ्यताओं के समान विकसित एवं प्राचीन थी तथा कुछ क्षेत्रों में तो उनसे भी अधिक विशिष्ट थी।

1921 ई. तक लोगों का यह मानना था कि भारत की प्राचीनतम सभ्यता आर्यों की वैदिक सभ्यता है, लेकिन “सिन्धु घाटी सभ्यता” की खोज ने इस धारणा को खत्म कर दिया।

इसी साल 1921 ई. में “रायबहादुर दयाराम साहनी” ने पंजाब के माण्टगोमरी जिले में हड़प्पा नामक स्थान पर सर्वप्रथम इस महत्वपूर्ण सभ्यता के अवशेषों का पता लगाया।

इसके बाद वर्ष 1922 ई. में “राखालदास बनर्जी” ने हड़प्पा से 640 किमी दूर सिन्ध प्रदेश के लरकाना जिले में स्थित मोहनजोदड़ो में उत्खनन के द्वारा एक भव्य नगर के अवशेष प्राप्त किए।

इस सभ्यता की खोज करने में दयाराम साहनी एवं राखलदास बनर्जी के अतिरिक्त सर जॉन मार्शल, अर्नेस्ट मैके, काशीनाथ दीक्षित, एन. जी. मजूमदार, सर आरेलस्टाइन, एच. हारगीव्हज, ह्वीलर एवं पिगट ने अत्यधिक परिश्रम किया एवं उल्लेखनीय सामग्री प्राप्त की।

प्रारम्भ में उत्खनन कार्य सिन्धु नदी की घाटी में ही किया गया था तथा वहीं पर इस सभ्यता के अवशेष सर्वप्रथम प्राप्त हुए थे, अतः मार्शल ने इस सभ्यता को ‘सिन्धु सभ्यता’ कहा।

अब जबकि इस सभ्यता के अवशेष सिन्धु नदी की घाटी से दूर गंगा-यमुना के दोआव और नर्मदा-ताप्ती के मुहानों तक प्राप्त हुए हैं।

अतः इस सभ्यता का नाम ‘सिन्धु सभ्यता’ उचित प्रतीत नहीं होता, कुछ पुरातत्ववेत्ताओं ने इस पुरातत्व परम्परा के आधार पर कि सभ्यता का नामकरण उसके सर्वप्रथम ज्ञात स्थल के नाम पर आधारित होता है, इस सभ्यता को ‘हड़प्पा सभ्यता’ कहा है, लेकिन अभी तक ‘सिन्धु सभ्यता’ नाम से ही जाना जाता है।

सिंधु घाटी सभ्यता की विशेषताएं –

सिंधु सभ्यता की खोज सन् 1921 ई.
सिंधु सभ्यता के खोजकर्तारायबहादुर दयाराम साहनी (1921) और राखालदास बनर्जी (1922)
प्रमुख खोजमोहनजोदड़ों मे खोज गया विशाल स्नानागार
धार्मिक जीवनमातृदेवी पूजा, शिव पूजा, योनि पूजा, पशु पूजा, सूर्य तथा अग्नि पूजा, वृक्ष पूजा, नदी पूजा
कला और संस्कृतिमूर्तिकला, चित्रकला भवन निर्माण कला, संगीत एवं नृत्यकला, धातु कला, मुहर निर्माण कला
आर्थिक जीवनपशुपालन, कृषि, कपड़े बुनना, व्यापार एवं उद्योग
सभ्यता का विस्तारबलूचिस्तान, सिंध, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और गुजरात
सभ्यता के विनाश के कारणबाढ़, भूकंप, संक्रामक रोग, राजनीतिक एवं आर्थिक विघटन, जलवायु परिवर्तन, बाहरी आक्रमण

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल –

पुरातात्विक अन्वेषणों एवं उत्खनन से स्पष्ट हो गया है कि सिन्धु-सभ्यता का क्षेत्र हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो तक ही सीमित नहीं, बल्कि इससे कहीं ज्यादा विस्तृत था।

सिन्धु सभ्यता का विस्तार प्राचीन मैसोपोटामिया, मिस्र एवं फारस की सभ्यताओं के क्षेत्रों से बहुत अधिक था।

सभ्यता के अन्तिम चरण में इसका क्षेत्रफल 12,99,600 वर्ग किमी हो गया था, परन्तु नवीनतम शोधपत्रों के आधार पर सैन्धव सभ्यता का क्षेत्रफल 15,02,097 वर्ग किमी है।

सिन्धु सभ्यता के विस्तार में उल्लेखनीय बात यह है कि सिन्धु सभ्यता के निवासियों ने मुख्यतया ऐसे स्थानों को चुना था, जहां की जलवायु गेहूं उपजाने के लिए उपयुक्त थी।

इस सभ्यता के निवासियों के पास लगभग 1300 किमी का समुद्रतट था, जिससे उन्हें समुद्री व्यापार की सुविधा भी उपलब्ध थी।

बाद में हुई अन्य खोजों से सिन्धु सभ्यता के अवशेष निम्न स्थानों से प्राप्त होते हैं जिनसे उसके विस्तार के बारे में जानकारी मिलती है।

बलूचिस्तान – बलूचिस्तान (यह पाकिस्तान में एक जगह) में सिन्धु सभ्यता के अवशेष सुत्कगेनडोर, सोकाकोह एवं डावरकोट से प्राप्त होते हैं।

सुत्कगेनडोर – सुत्कगेनडोर, कराची (पाकिस्तान) के पश्चिम में लगभग 300 मील की दूरी पर स्थित है, वर्ष 1927 ई. में इसकी खोज स्टाइन ने की थी, 1962 ई. में खोजकर्ता डेल्स ने यहां बन्दरगाह, दुर्ग एवं निचले नगर की रूपरेखा प्राप्त की थी।

सोत्काकोह – इस स्थान की खोज वर्ष 1962 ई. में उत्खननकर्ता डेल्स ने की थी, यह स्थान पेरिन से आठ मील की दूरी पर स्थित है।

डाबरकोट – यह स्थान, पाकिस्तान के उत्तरी बलूचिस्तान की पहाड़ियों में मौजूद है।

सिन्ध – पाकिस्तान के सिन्ध में निम्नलिखित स्थानों से सिन्धु सभ्यता के अवशेष प्राप्त होते हैं –

कोटदीजी कोटदीजी, मोहनजोदड़ो से पूर्व में लगभग 40 किमी की दूरी पर स्थित है। 1955 एवं 1947 ई. में उत्खननकर्ता ‘फजल अहमद खां’ ने यहां उत्खनन कराया जिसमें सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए ।

यहां यह उल्लेखनीय है कि सिन्धु सभ्यता के नीचे यहां पर एक अन्य सभ्यता, जिसे ‘कोंटदीजी सभ्यता’ कहा गया, के अवशेष भी प्राप्त हुए।

अलीमुरीद – यह स्थान दादू से 32 किमी दूर स्थित है, यहां से भी सिन्धु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

चन्हुदड़ो – इस स्थान की खोज 1931 ई. में एन. जी. मजूमदार ने की थी। यह स्थान मोहनजोदड़ो से दक्षिण-पूर्व में लगभग 128 किमी पर स्थित है।

यहां पर की गई खुदाई में सबसे नीचे सिन्धु सभ्यता, उसके ऊपर झूकर सभ्यता तथा उसके ऊपर झांगर सभ्यता के अवशेष प्राप्त होते हैं।

पंजाब – सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष, हड़प्पा के अतिरिक्त पंजाब में रोपड़, बाड़ा, संधोल नामक स्थानों पर भी मिले हैं।

रोपड़ रोपड़ में उत्खनन का कार्य यज्ञदत्त शर्मा ने कराया, यह स्थान शिवालिक पहाड़ियों के मध्य स्थित है।

बाड़ा – यह स्थान रोपड़ के समीप ही स्थित है। यहां से भी सिन्धु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

संघोल – यह स्थान लुधियाना जिले में स्थित है। यहां से सिन्धु सभ्यता के मनके, चूड़ियां, बाली, आदि भी प्राप्त हुए। हैं।

हरियाणा – हरियाणा में सिन्धु सभ्यता सम्बन्धी बणावली एवं मित्ताथल नामक स्थानों का पता चला है।

राजस्थान – राजस्थान में कालीबंगा नामक स्थान पर सिन्धु-सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

कालीबंगा सरस्वती नदी के किनारे पर स्थित है, जहां दो टीले हैं। पूर्वी टीले में पत्थर • के मोती, मिट्टी की चूड़ियां, बर्तन (मिट्टी के) प्राप्त हुए हैं।

पश्चिमी टीले में स्नानागार, कुएं, अग्निकुण्ड एवं मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए हैं। इस स्थान की खोज 1942 ई. में स्टाइन ने की थी।

उत्तर प्रदेश – उत्तर प्रदेश में सिन्धु सभ्यता के अवशेष, मेरठ से लगभग 30 किमी दूर आलमगीरपुर एवं गंगा की घाटी में इलाहाबाद से 56 किमी दूर कौशाम्बी के समीप प्राप्त हुए हैं।

गुजरात – इस सभ्यता के अवशेष… गुजरात में रंगपुर, लोथल, रोजदि, सुरकोटड़ा एवं मालवण से सिन्धु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

उपरोक्त स्थानों में लोथल ही विशेषतया महत्वपूर्ण है, यह अहमदाबाद से 16 किमी दक्षिण में स्थित है।

यहां हुए उत्खनन से ज्ञात होता है कि यहां पर सम्भवतः एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था तथा जहाजों के रुकने के लिए एक विशाल डाकयार्ड बना हुआ था।

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि सिन्धु सभ्यता अत्यधिक विस्तृत थी, प्रो. आर. एन. राव का मानना है कि सिन्धु सभ्यता का विस्तार पूर्व से पश्चिम 1,600 किलोमीटर व उत्तर से दक्षिण 1,100 किलोमीटर के क्षेत्र में था।

पिगट का विचार है कि सिन्धु सभ्यता के अन्तर्गत इस विशाल प्रदेश की व्यवस्था व प्रशासन दो राजधानियों, उत्तर में हड़प्पा व दक्षिण में मोहनजोदड़ो के द्वारा होता था।

सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार –

Sindhu Ghati Sabhyata In Hindi Pdf
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सिन्धु सभ्यता के निर्माता एवं निवासी –

सिन्धु सभ्यता के निर्माता एवं निवासी कौन थे? यह एक अत्यन्त विवादास्पद विषय है।

सिन्धु घाटी सभ्यता के निर्माता भारतीय अर्थात स्थानीय ही थे या वे बाहर से आए थे, यह भी निर्धारित करना बहुत मुश्किल काम है।

सिन्धु घाटी में प्राप्त कंकालों से आर्य, आग्नेय, भूमध्यसागरीय, द्रविड़ एवं किरात किसी का भी यहां बसना प्रमाणित हो सकता है।

अद्यतन शोध कार्यों के परिणामस्वरूप प्राप्त तथ्यों के आधार पर सुविज्ञ पुरातत्ववेत्ताओं में अग्रांकित चार मत प्रचलित हैं –

मेसोपोटामिया की संस्कृति की देन – सिन्धु सभ्यता, मैसोपोटामिया की संस्कृति की देन थी।

इस मत का समर्थन करने वालों में प्रमुख विद्वान गार्डन तथा ह्वीलर हैं, किन्तु इस मत को पूर्णतया स्वीकार करने में अनेक समस्याएं हैं।

बलूची संस्कृति की देन – फेयर सर्विस का मत है कि इस सभ्यता का उद्भव एवं विस्तार बलूची संस्कृतियों का सिन्धु की शिकार पर निर्भर करने वाली किन्हीं वन्य एवं कृषक संस्कृतियों के पारस्परिक प्रभाव के परिणामस्वरूप हुआ।

किन्तु निश्चित एवं अकाट्य प्रमाणों के अभाव में इस मत को स्वीकार करने में भी अनेक समस्याएं हैं।

भारतीय संस्कृति – श्री अमलानन्द घोष ने वर्ष 1953 में सोथी-संस्कृति से सिन्धु सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान की सम्भावना की बात कही है।

रेमण्ड अल्विन, ब्रिजेट अल्विन व धर्मपाल अग्रवाल का विचार है कि सोथी-संस्कृति सिन्धु सभ्यता से पृथक नहीं थी, अपितु यह सिन्धु सभ्यता का ही प्रारम्भिक स्वरूप थी।

हालांकि अधिकांश विद्वान इस मत को भी स्वीकार करने लगे हैं, किन्तु उल्लेखनीय है कि सोथी एवं सिन्धु सभ्यता में पर्याप्त सांस्कृतिक विषमताएं है।

आर्य संस्कृति की देन – कुछ इतिहासकारों जिनमें लक्ष्मणस्वरूप पुसाल्कर एवं रामचन्द्रन प्रमुख हैं, का विचार है कि सिन्धु सभ्यता आर्यों की ही सभ्यता थी तथा आर्य ही इस सभ्यता के जनक थे।

किन्तु सिन्धु सभ्यता को आर्यों की सभ्यता स्वीकार नहीं किया जा सकता। आर्य एवं सिन्धु सभ्यता में निम्नलिखित प्रमुख भेद थे –

(i) पशु – घोड़े का ज्ञान सिर्फ आर्यों को ही था। आर्य गाय की पूजा करते थे, जबकि सिन्धु सभ्यता में बैल अधिक सम्माननीय था।

(ii) धातु – आर्य को लोहे का ज्ञान था वे लोहे का प्रयोग करते थे, किन्तु सिन्धु निवासी इसका प्रयोग नहीं करते थे, सिंधु निवासियों को सम्भवतः लोहे का ज्ञान न था।

(iii) नगर एवं ग्राम प्रधान सभ्यताएं- वैदिक आर्यों की ग्रामीण एवं कृषि-प्रधान सभ्यता थी, जबकि सिन्धु-सभ्यता नगरीय एवं व्यापार प्रधान थी।

(iv) युद्ध – युद्ध कला के क्षेत्र में बात करें तो, सिन्धु घाटी सभ्यता के व्यक्ति शन्तिप्रिय थे, जबकि आर्य युद्ध प्रेमी थे।

(v) धर्म – सिन्धु-निवासी मूर्तिपूजक थे तथा शिवलिंग एवं मातृ पूजा करते थे। आर्य मूर्ति पूजा के विरोधी तथा सूर्य, अग्नि, पृथ्वी, इन्द्र, सोम, वरुण, आदि की मन्त्रों द्वारा पूजा करते थे।

(vi) वेश-भूषा – सिन्धु-निवासी अंगरखे का प्रयोग करते थे तथा स्त्रियां घाघरा धारण करती थीं।

वैदिक आर्य अन्य पोशाक भी धारण करते थे, आर्य रुई के कपड़े भी पहनते थे।

(vii) मनोरंजन के साधन – सिन्धु सभ्यता के निवासी घरों में खेले जाने वाले खेल (Indoor games) पसन्द करते थे, किन्तु आर्यों में बाहरी खेलों (Outdoor games) का अधिक प्रचलन था।

(viii) बर्तन – सिन्धु-निवासी मिट्टी के अत्यन्त सुन्दर बर्तन बनाते थे, आर्यों के बर्तन अत्यन्त साधारण होते थे।

उपर्युक्त विभिन्नताओं के कारण इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता, सिन्धु सभ्यता के उपलब्ध मानव कंकालों से प्रतीत होता है कि यहां पर विभिन्न प्रजातियों के लोग रहते थे।

आर्यों के आगमन से पूर्व ही यहां के निवासियों ने विभिन्न प्रजातियों के सम्पर्क से प्रभावित होकर एक नवीन विकसित सभ्यता का विकास कर लिया।

सिन्धु सभ्यता की तिथि –

सिन्धु सभ्यता की तिथि निर्धारित करने के लिए कोई भी साहित्य अथवा लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, अतः हमें पूर्णरूपेण उत्खनन से प्राप्त मूक साक्ष्यों पर आधारित होना पड़ता है।

समस्त साक्ष्यों का अध्ययन करने के उपरान्त ह्वीलर ने यह मत प्रतिपादित किया कि सिन्धु सभ्यता का समय 2500-1500 ई. पू. था।

प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता सांकलिया ने भी इस तिथि को ही अधिक उचित स्वीकार किया है।

सामाजिक जीवन –

लिखित साक्ष्यों के अभाव में यद्यपि सामाजिक जीवन के विषय में जानना अत्यधिक मुश्किल कार्य है।

हालांकि उत्खनन से प्राप्त सामग्रीयों एवं स्रोतों से सिन्धु सभ्यताकालीन सामाजिक स्थिति, विशेषकर तत्कालीन खान-पान, वेश-भूषा, आभूषण-प्रसाधन सामग्री, आदि के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

सामाजिक संगठन –

व्यवसाय के आधार पर चार भागों में विभाजित हो गया था, इसमें विद्वान, योद्धा एवं प्रशासनिक अधिकारी, व्यवसायी तथा श्रमजीवी वर्ग होते थे।

इतिहासकारों का विचार है कि सम्भवतः इस सभ्यता के अन्तर्गत समाज ‘मातृ प्रधान’ होता था।

भोजन –

सिन्धु सभ्यता के लोगों का मुख्य आहार गेंहू जौ, चावल (चाइल्ड के अनुसार), मटर, दूध तथा दूध से निर्मित खाद्यान्न, सब्जियां, फलों के अतिरिक्त गाय, भेड़, मछली, कछुए, मुर्गे, आदि जन्तुओं के मांस का भी सेवन करते थे।

वेशभूषा एवं आभूषण –

सिंधु सभ्यता के लोग शरीर पर दो कपड़े धारण करते थे, जिसमें एक आधुनिक शाल के समान कपड़ा होता था जिसे बायें कन्धे के ऊपर तथा दाहिनी भुजा के नीचे से निकालकर पहनते थे, ताकि दाहिना हाथ कार्य करने के लिए स्वतंत्र हो।

और दूसरा वस्त्र जो शरीर पर नीचे पहना जाता था, आधुनिक धोती के समान होता था, तथा स्त्रियों एवं पुरुषों के वस्त्रों में विशेष अन्तर नहीं था।

इनके कपड़े, साधारणतः सूती पहने जाते थे, किन्तु ऊनी वस्त्रों का भी प्रचलन था, इसके अतिरिक्त सिन्धु सभ्यता के निवासियों (स्त्री व पुरुष दोनों) को आभूषणों का अत्यधिक शौक था।

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अंगूठियां, कड़े, कंगन, कण्ठहार, कुण्डल, आदि आभूषण स्त्री व पुरुष दोनों ही धारण करते थे जबकि स्त्रियां चूड़ियां, कर्णफूल, हंसली, भुजबन्द, करधनी, आदि का प्रयोग करती थीं।

आभूषण सोने, चांदी, हाथी दांत, हीरों, आदि से निर्मित किए जाते थे, निर्धन व्यक्ति तांबे, मिट्टी, सीप, आदि के आभूषण पहनते थे।

श्रीनगर में मिले उत्खनन के सामानों से ऐसा प्रेतीत होता है कि आधुनिक युग के समान सिन्धु सभ्यताकालीन स्त्रियां भी प्रसाधन का प्रयोग सजने सँवरने में खुद को अत्यन्त पसन्द करती थीं।

इसमें अत्यन्त उल्लेखनीय बात यह है कि वे लिपिस्टिक का प्रयोग भी करती थीं।

मनोरंजन के साधन –

सिन्धु सभ्यता के निवासियों के आमोद-प्रमोद के प्रमुख साधनों में जुआ, शिकार खेलना, नाचना गाना बजाना तथा मुर्गों की लड़ाई देखना था।

औषधियां –

कुछ इतिहासकारों का विचार है कि सिन्धु-सभ्यता निवासी विभिन्न औषधियों से परिचित थे।

इसमें सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि सिन्धु सभ्यता में खोपड़ी की शल्य-चिकित्सा के उदाहरण भी कालीबंगा एवं लोथल से प्राप्त होते हैं।

गृहस्थी के उपकरण –

सिन्धु सभ्यता के निवासी लोग घड़े, कलश, थाली, गिलास, चम्मच, मिट्टी के कुल्हड़ तथा कभी-कभी सोने, चांदी अथवा तांबे के बने वर्तनों का प्रयोग करते थे।

अस्त्र-शस्त्र –

हड़प्पा सभ्यता के निवासियों के प्रमुख हथियारों में भाला, कटार, परशु, धनुष एवं वाण थे, लेकिन वहीं इस सभ्यता में युद्ध सामग्रीयों का अभाव सा प्रतीत होता है।

इससे यह ज्ञात होता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग युद्ध प्रेमी न थे अर्थात् वे शांतिप्रिय जीवन को पसन्द करते थे।

आर्थिक जीवन –

उत्खनन द्वारा प्राप्त किए गए भग्नावशेषों से ज्ञात होता है कि सिन्धु सभ्यता के निवासियों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी।

कृषि – सिन्धु सभ्यता के निवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि ही था, इस सभ्यता में गेहूं, जौ, कपास, मटर, तिल तथा सम्भवतः चावल एवं अनेक फल (खरबूज, तरबूज, आदि) उगाए जाते थे।

पशु-पालन – पुरातात्विक स्रोतों से ज्ञात होता है कि वे गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, कुत्ता, आदि पालते थे, घोड़े से सम्भवतः वे लोग परिचित न थे।

कपड़े बुनना – इस सभ्यता के निवासी सम्भवतः विश्व के सूत कातने तथा कपड़े, बुनने वाले प्रथम लोग थे।

उद्योग एवं अन्यं व्यवसाय – सिन्धु-निवासी शिल्पकला में अत्यन्त दक्ष थे, यहाँ की गई खुदाई में मिट्टी के असंख्य बर्तन प्राप्त हुए हैं जो बहुत सुन्दर एवं आकर्षक हैं।

इसके साथ ही सिन्धु सभ्यता में धातुओं के भी सुन्दर आभूषण बनाए जाते थे। धातुओं के अतिरिक्त सीप, शंख, हाथी दांत, आदि के भी आभूषण बनाए जाते थे।

व्यापार – व्यापार के क्षेत्र में सिन्धु-निवासियों के विदेशों से भी व्यापारिक सम्बन्ध थे, बाहरी लोगों के साथ इनका सम्पर्क थल एवं जल दोनों ही मार्गों से था, थल पर बैलगाड़ियों एवं जल में जहाजों का प्रयोग किया जाता था।

सिन्धु-सभ्यता के विभिन्न स्थानों से प्राप्त वस्तुओं की साम्यता को देखकर प्रतीत होता है आर्थिक क्षेत्र में सुसंगठित शासन तन्त्र का नियन्त्रण रहा होगा।

धार्मिक जीवन –

सिन्धु सभ्यता के लोगों के धार्मिक जीवन के विषय में जानने के लिए पूर्णतः पुरातात्विक स्रोतों का ही सहारा लेना पड़ता है, क्योंकि यही स्त्रोत है जहां से इसकी जानकारी मिल सकती है।

मुद्राओं, आदि पर अंकित लेखों को अभी तक पढ़े न जाने कारण उनसे भी इस विषय पर प्रकाश नहीं पड़ता।

पुरातात्विक स्रोतों के अतिरिक्त मैसोपोटामिया से प्राप्त लेख (जिनको पढ़ा जा चुका है) सिन्धु-सभ्यताकालीन धर्म के विषय में जानकारी प्राप्त करने में सहायक प्रमाणित होते हैं।

इनसे ज्ञात होता है कि सिन्धु-निवासी निम्नलिखित देवी-देवताओं की आराधना करते थे-

(1) मातृदेवी पूजा, (2) शिव पूजा, (3) योनि पूजा, (4) पशु पूजा, (5) सूर्य तथा अग्नि पूजा, (6) वृक्ष पूजा, (7) नदी पूजा।

मातृदेवी पूजा –

हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा चन्हूदड़ो से मिट्टी की बनी हुई मातृदेवी की असंख्य मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।

इन्हें पृथ्वी या मातृदेवी का प्रतीक माना गया है, सिन्धु सभ्यता से प्राप्त मृण्मूर्तियों में शिशु को दूध पिलाते हुए नारी को दिखाया गया है।

मातृदेवी को सृष्टिकर्त्री एवं वनस्पतियों की अधिष्ठात्री के रूप में भी दिखाया गया है।

एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से एक पौधे को निकलता हुआ दिखाया गया है जो मातृदेवी की उर्वरता की शक्ति का प्रतीक है।

इससे स्पष्ट होता है कि मातृदेवी सिन्धु सभ्यता की प्रमुख देवी के रूप में विभिन्न स्वरूपों में दृष्टिगोचर होती है।

सर जॉन मार्शल के अनुसार सिन्धु प्रदेश में मातृदेवी को आद्य शक्ति के रूप में पूजा जाता था।

शिव पूजा –

सिन्धु घाटी से प्राप्त एक मुद्रा पर शिव के प्रारम्भिक रूप यथा परमपुरुष की आकृति अंकित है।

इस परमपुरुष के तीन मुख हैं तथा वे त्रिनेत्रधारी हैं। सिंहासन पर स्थित यह मूर्ति योगमुद्रा में है।

यह देव चार पशुओं, अर्थात् हस्ति, व्याघ्र, गैंडा तथा भैंसा के साथ प्रदर्शित किया गया है। इस मूर्ति के सिर पर दो सींग प्रदर्शित किये गये हैं।

मार्शल महोदय ने इसे पशुपति या शिव की मूर्ति माना है, इससे यह स्पष्ट होता है कि सिन्धु घाटी के निवासी शिव की उपासना करते थे।

योनि पूजा –

हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की खुदाई से ऐसे बहुसंख्यक छल्ले मिले हैं जिन्हें अधिकांश विद्वान योनियां मानते हैं।

वे आधे इंच से लेकर चार इंच तक के हैं, इससे हम यह परिकल्पना कर सकते हैं कि सिन्धु-निवासी योनि की उपासना करते थे।

योनि स्त्रीलिंग का प्रतीक मानी जाती थी, सिन्धुवासियों की यह मान्यता थी कि स्त्रीलिंग धारण करने से अनेक विपदाएं समाप्त हो जाती हैं।

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सिन्धु सभ्यता के धर्म की विशेषताएं –

पशु पूजा – सिन्धुघाटी के उत्खनन द्वारा अनेक पशुओं की मूर्तियां तथा उत्कीर्ण चित्रादि मिले हैं।

पशुओं में सबसे प्रमुख कूबड़दार सांड़ (humped bull) था, इसके अतिरिक्त भैंसा, बाघ, भेड़, बकरी, गैंडा, हिरन, ऊंट, घड़ियाल, मछली, मोर, तोता आदि के खलौने भी मिले हैं।

पशु-पक्षियों के उपर्युक्त चित्रों के आधार पर यह कहना तो गलत होगा कि उपर्युक्त सभी पशु-पक्षी उनके उपास्य थे, परन्तु इतना निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि कूबड़दार सांड़ का सम्बन्ध सिन्धुवासियों के धार्मिक विश्वास के साथ था।

सूर्य तथा अग्नि पूजा – उत्खननों से प्राप्त कतिपय प्रतिमाओं पर ऐसा चक्र बना हुआ है जिसके चारों ओर किरणें निकल रही हैं।

यह सूर्योपासना का प्रचलन प्रमाणित करता है। कतिपय ऐसी सामग्री भी मिली है जिसके द्वारा यह पता चलता है कि इस समय अनेक अग्निशालाएं भी थीं।

इससे स्पष्ट होता है कि उस समय धार्मिक मान्यतानुसार अग्नि-पूजा भी प्रचलित थी।

वृक्ष पूजा – सिन्धुघाटी के उत्खनन से अनेकानेक वृक्षों की मूर्तियां तथा अंकन प्राप्त हैं। एक मुद्रा पर वस्त्रहीन नारी के निकट वृक्ष की टहनियां, हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा पर मानव आकृति पीपल की पत्तियां पकड़े हुए, मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर जुड़वां पशु के सिर पर पीपल की पत्तियों का अंकन है।

नदी पूजा – सिन्धु सभ्यता में नदी की पूजा या जलदेवता की भी पूजा करने की प्रथा प्रचलित थी, आमतौर पर लगभग सभी सभ्यताऐं वहीं विकसित हुई जहां पर पनि की समुचित व्यवस्था मौजूद थी, उसी तरह इस सभ्यता के फलने-फूलने में नदियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, अतः इनकी पूजा असंभव नहीं लगती।

स्नान को धार्मिक अनुष्ठान का दर्जा दिया गया था। मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार इसी उद्देश्य से बनवाया गया था।

कुछ विद्वानों का विचार है कि मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार जलदेवता का मन्दिर था तथा नगर निवासी यहां पर धार्मिक विश्वासों के अनुरूप स्नान करते थे।

अन्य प्रथाएं – सिन्धु सभ्यता के अवशेषों से ज्ञात होता है कि आधुनिक युग के समान कुछ वे लोग भी पूजा में धूप व अग्नि का प्रयोग करते थे।

मृतक संस्कार – सिन्धु-निवासी धार्मिक विश्वासों के आधार पर तीन प्रकार से मृतक का अन्तिम संस्कार करते थे-

(i) पूर्ण समाधि – इसमें मृतक को जमीन में गाढ़ दिया जाता था। वहां समाधि बनायी जाती थी।

(ii) आंशिक समाधि— इस विधि में पहले मृतक को पशु-पक्षियों का आहार बनने के लिए खुले स्थान पर छोड़ा जाता था तथा बाद में उसकी अस्थियों को पात्र में रखकर भूमि में रखा जाता था।

(iii) दाह कर्म—इस विधि में शव को जलाकर उसकी राख तथा अस्थियों को कलश में रखकर भूमि में गाड़ा जाता था।

सिंधु घाटी सभ्यता की कला –

सिन्धु प्रदेश में खुदाई के द्वारा अनेक मूर्तियां, बर्तन, कलश, मुहरें, आभूषण, आदि प्राप्त हुए हैं, जिनसे तत्कालीन कला एवं ललितकला के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

भवन-निर्माण कला – विशाल अन्नगृह, मकान, सुनियोजित नगर, आदि उनकी इस कला को प्रमाणित करते हैं।

मूर्तिकला – सिन्धु निवासी मूर्तियां बनाने में कुशल थे, उस समय की धातु, पाषाण, एवं मिट्टी की मूर्तियां बहुत संख्या में उत्खनन से प्राप्त हुई हैं।

इनमें धार्मिक मूर्तियाँ जिनमें देवी-देवताओं, उपासिकाओं, आदि की मूर्तियां व साधारण महत्व वाली मूर्तियां शामिल है।

धातु कला – सिन्धु-निवासी अत्यन्त सुन्दर आभूषणों का निर्माण करते थे। यह आभूषण सोने, चांदी, तांबे, आदि के होते थे।

चित्रकला – सिन्धु सभ्यता के निवासियों को चित्रकला का भी ज्ञान था जिसकी पुष्टि प्राप्त वर्तनों एवं मुहरों पर चित्रित आकृतियों से होती है।

संगीत एवं नृत्यकला – संगीत सम्बन्धी अनेक उपकरण (तबला, ढोल, इत्यादि) भी खुदाई से प्राप्त हुए हैं।

नृत्य की मुद्रा में स्त्री की धातु की मूर्ति इस बात की परिचायक है कि वे नृत्यकला में रुचि रखते थे।

ताम्रपत्र निर्माण कला – सिन्धु सभ्यताकालीन अनेक ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं जो आकार में वर्गाकार हैं।

मुहर निर्माण कला – सिन्धु प्रदेश के उत्खनन के परिणामस्वरूप लगभग 550 मुहरें प्राप्त हुई हैं जो मिट्टी एवं विविध प्रकार के पत्थरों से निर्मित हैं। अधिकांश मुद्राओं पर लेख व पशु की आकृति अंकित है।

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सिन्धु सभ्यता की लिपि –

सिन्धु सभ्यता की खुदाई से प्राप्त वस्तुओं से ज्ञात होता है कि सिन्धु-निवासियों को लिखने की कला का ज्ञान था।

दुर्भाग्यवश, अभी तक सिन्धु सभ्यता की लिपि को पढ़ा नहीं जा सका है; यद्यपि अभी तक 2,467 लिखित वस्तुएं (1,398 मोहनजोदड़ो से, 891 हड़प्पा से तथा शेष अन्य स्थानों से) प्राप्त हो चुकी हैं।

विद्वानों का विचार है कि यह लिपि भावचित्रक (Ideographic) है। इसमें प्रत्येक चिह्न

एक शब्द का द्योतक है। इस प्रकार की लिपि में अक्षरसूचक एक चिह्न एक अक्षर का द्योतक होता है।

सिन्धु-लिपि के लिखने की दिशा के विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान उसे बाएं से दाएं अर्थात् ब्राह्मी की तरह तथा कुछ खरोष्ठी के समान दाएं से बाएं लिखी हुई बताते है।

राजनीतिक स्वरूप –

लिखित साक्ष्यों के अभाव में सिन्धु सभ्यताकालीन राजनीतिक स्थिति का निर्धारण करना अत्यन्त कठिन है।

उत्खनन में प्राप्त विभिन्न स्रोतों से ही तत्कालीन राजनीतिक स्थिति के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है।

अतः अनेक विद्वानों ने अनुमानों के आधार पर ही अपने मतों को प्रतिपादित किया है।

पुरातत्ववेत्ता ‘हण्टर’ का मानना है कि यहां शासन-व्यवस्था राजतन्त्रात्मक नहीं वरन् लोकतन्त्रात्मक थी जबकि मैके के अनुसार मोहनजोदड़ो में एक प्रतिनिधि शासक प्रशासन करता था।

जबकि ह्वीलर का विचार है कि मोहनजोदड़ो की शासन व्यवस्था धर्म गुरुओं और पुरोहितों के हाथों में केन्द्रित थी जो जन प्रतिनिधियों के रूप में प्रशासनिक कार्य करते थे।

योजनाबद्ध निर्माण को देखते हुए अनुमान किया जाता है कि नगरपालिका जैसी कोई संस्था अवश्य रही होगी।

सिंधु घाटी सभ्यता की नगर योजना एवं वास्तु कला –

नगर-योजना – नगर में चौड़ी-चौड़ी सड़कें पूर्व से पश्चिम एवं उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर थीं जो प्रायः एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं।

इस प्रकार प्रत्येक नगर अनेक खण्डों में विभाजित हो जाता था। मोहनजोदड़ो में एक 11 मीटर चौड़ी सड़क भी थी जो सम्भवतः राजमार्ग रही होगी। नगर की सभी सड़कें इस प्रमुख राजमार्ग में मिलती थीं।

सड़कें प्रमुखतया कच्ची थीं। केवल एक ऐसा उदाहरण मिलता है जिसमें सड़क को पक्का करने का प्रयत्न किया गया प्रतीत होता है।

कच्ची सड़कें होने के पश्चात् भी सफाई का पूर्ण ध्यान रखा जाता था।

सड़क के किनारे पर नालियां होती थीं जो पक्की एवं ढकी हुई थीं। इन नालियों के द्वारा गन्दा पानी नगर से बाहर पहुंचाया जाता था।

साथ ही इन नालियों में थोड़ी दूर पर शोषक-कूप (Soak Pits) भी थे जिससे कूड़े से पानी का बहाव रुकने न पाए।

इस नगरीय सरकार के प्राधिकार अवश्य ही इतने सुदृढ़ होंगे कि यह नगर आयोजन के उपनियमों का पालन करवा सके।

भवन-निर्माण – नगर-निर्माण के समान सिन्धु सभ्यता निवासी भवन-निर्माण कला में भी दक्ष थे।

इसकी पुष्टि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो आदि से प्राप्त भग्नावशेषों से होती है। इनके द्वारा निर्मित मकानों में सुख-सुविधा की पूर्ण व्यवस्था थी।

साधारण भवन – साधारण लोगों के रहने के मकानों का निर्माण सड़क के दोनों ओर किया जाता था।

इन मकानों का आकार आवश्यकतानुसार छोटा या बड़ा होता था। कुछ मकान कच्चे व कुछ पक्के बनाए जाते थे।

हवा व प्रकाश का मकानों को बनाते समय पूर्ण ध्यान रखा जाता था। मकान एक से अधिक मन्जिल के भी होते थे।

ऊपर की मन्जिल पर जाने के लिए पत्थरों व ईंटों की सीढ़ियां होती थीं। मकानों में दरवाजे एवं खिड़कियां एवं रोशनदान, रसोईघर, स्नानगृह व आंगन भी होता था।

खिड़कियां एवं दरवाजे गली में खुलते थे। दरवाजे व छत लकड़ी के बने होते थे दीवार बहुत मोटी बनायी जाती थी।

इसका कारण सम्भवतः कमरों को ठण्डा रखना था। मकान का फर्श ईंटों, खड़िया, मिट्टी और गारे से बनाया जाता था, पकायी गयी ईंटों का ही प्रयोग किया जाता था।

स्नानागार सुन्दर ढंग से बनाए जाते थे, स्नानगृहों व रसोईघरों से पानी निकालने के लिए नालियां होती थीं जो गलियों की नालियों में मिलती थीं।

छत पर से पानी निकालने अथवा दूसरी मन्जिल पर स्थित स्नानगृह से पानी निकालने के लिए मिट्टी या लकड़ी के परनाले भी होते थे।

सार्वजनिक एवं राजकीय भवन – सिन्धु घाटी सभ्यता सम्बन्धी प्रदेशों में किए गए उत्खनन के परिणामस्वरूप यह तथ्य पता चला कि साधारण मकानों के अतिरिक्त यहां पर राजकीय एवं सार्वजनिक भवन भी थे, सार्वजनिक भवन सभी के प्रयोग के लिए होते थे।

अन्न भण्डारगृह – हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में कुछ अन्य विशाल भवन मिले हैं, जिन्हें पुरातत्ववेत्ता अन्न भण्डारगृह मानते हैं।

हड़प्पा में राजमार्ग के दोनों ओर 1.25 मीटर ऊंचे चबूतरों पर छह-छह की दो पंक्तियों में विशाल अन्न भण्डार बने हुए थे, अन्न भण्डार की लम्बाई 18 मीटर व चौड़ाई 7 मीटर थी।

मोहनजोदड़ो में सार्वजनिक भोजनालयों के अवशेष भी प्राप्त होते हैं। ह्वीलर ने इसे ‘अन्नागार’ तथा अन्य विद्वानों ने इसे ‘राजकीय भण्डार’ कहा है।

सार्वजनिक स्नानागार – मोहनजोदड़ो में उत्खनन से एक विशाल स्नानागार के विषय में भी पता चला जो 39 फुट लम्बा, 23 फुट चौड़ा तथा 8 फुट गहरा है। इसमें उतरने के लिए उत्तर तथा दक्षिण की ओर सीढ़ियों का निर्माण किया गया है।

यह स्नानागार एक विशाल भवन के मध्य में है, स्नानकुण्ड के पानी को बाहर निकालने की भी समुचित व्यवस्था की गयी थी।

जलाशय के चारों ओर बरामदे थे तथा इनके पीछे कमरे थे। कुछ इतिहासकारों का मत है कि सम्भवतः इन कमरों में गर्म पानी करने की व्यवस्था थी।

किन्तु मैके के अनुसार, “यह स्थान पुरोहितों के स्नान करने के लिए था, जबकि मुख्य जलाशय सार्वजनिक प्रयोग के लिए था।” मार्शल ने इसे तत्कालीन विश्व का एक ‘आश्चर्यजनक निर्माण’ बताया है।

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सिन्धु सभ्यता का विदेशों से सम्बन्ध –

सिन्धु सभ्यता सम्बन्धी विभिन्न प्रदेशों के उत्खनन से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि सिन्धु-लोगों के अन्य देशों के साथ सम्बन्ध थे।

यह सम्बन्ध राजनीतिक थे अथवा नहीं? इसमें सन्देह है, किन्तु इतना निश्चित है कि मुख्य रूप से उनके विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध थे।

इस व्यापारिक, आदान-प्रदान ने सांस्कृतिक क्षेत्र में भी एक दूसरे को प्रभावित किया।

उदाहरणार्थ, सिन्धु एवं सुमेर-सभ्यता में बहुत समानता है, सुमेर में अनेक मुहरें प्राप्त हुई हैं, जो हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की मुहरों से एकरूपता रखती हैं, परन्तु दोनों सभ्यताओं में किसने किसको प्रभावित किया, इस विषय पर विद्वानों में पर्याप्त गतभेद है।

मेसोपोटामिया में भारतीय वस्तुएं मिलने पर मार्शल ने विचार प्रस्तुत किया कि सुमेर ही नहीं वरन् पश्चिम एशिया संस्कृति का स्रोत भी भारत ही था।

सिन्धु सभ्यता का विनाश एवं अन्त –

सिन्धु सभ्यता का अन्त कब, क्यों और कैसे हुआ? इस विषय में सन्तोषजनक उत्तर देना अत्यधिक कठिन है।

जहां तक सिन्धु सभ्यता का अन्त कब हुआ ? का प्रश्न है, जैसा कि सिन्धु सभ्यता की तिथि निर्धारित करते समय वर्णन किया जा चुका है, सम्भवतः 1500 ई. पू. के लगभग ऐसा हुआ था।

सिन्धु सभ्यता का अन्त क्यों और कैसे अथवा किसके द्वारा हुआ, इस विषय में कोई अकाट्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता।

विभिन्न इतिहासकारों ने सिन्धु सभ्यता के अन्त के विषय में अनुमान द्वारा तर्क प्रस्तुत किए हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है-

बाढ़ – प्रसिद्ध भूगर्भशास्त्री साहनी का विचार है कि सिन्धु सभ्यता के विनाश का प्रमुख कारण जल प्लावन (बाढ़) था।

भूकम्प – हालांकि कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि सम्भवतः किसी शक्तिशाली भूकम्प के द्वारा इस सभ्यता का विनाश हुआ होगा।

संक्रामक रोग – कुछ विद्वानों के अनुसार मलेरिया अथवा किसी अन्य संक्रामक रोग के बड़े पैमाने पर फैलने से ऐसा हुआ होगा।

राजनीतिक एवं आर्थिक विघटन – कुछ इतिहासकारों का विचार है कि सिन्धु-सभ्यता का विनाश तत्कालीन राजनीतिक एवं आर्थिक विघटन के कारण हुआ।

सिन्धु सभ्यता तथा मैसोपोटामिया से प्राप्त साक्ष्यों से पता चलता है कि अन्तिम चरण में सिन्धु सभ्यता का विदेशों से व्यापार अत्यन्त कम हो गया था।

यह इस बात का द्योतक है कि सिन्धु सभ्यताकालीन समाज को अन्तिम दिनों में कुशल नेतृत्व प्राप्त नहीं था, वैदेशिक व्यापार कम होने पर स्वाभाविक था कि तत्कालीन समाज पर दुष्प्रभाव पड़ता ।

जलवायु परिवर्तन – अमलानन्द घोष, आदि विद्वानों का मत है कि परिवर्तन एवं अनावृष्टि के कारण इस सभ्यता का पतन हुआ। जलवायु में

बाह्य आक्रमण – अनेक इतिहासकार सिन्धु-सभ्यता के विनाश का एक प्रमुख कारण बाह्य आक्रमण मानते हैं।

गार्डन चाइल्ड ने 1934 ई. व ह्वीलर ने 1946 ई. में सम्भावना व्यक्त की थी कि सिन्धु सभ्यता के पतन के लिए आर्यों का आक्रमण उत्तरदायी है।

यद्यपि निश्चित रूप से ऐसा स्वीकार करना कठिन है कि आर्यों ने आक्रमण किया था, किन्तु उत्खनन में वृहत् संख्या में प्राप्त कंकालों, जिनमें से कुछ पर पैने हथियारों द्वारा किए गए घावों के निशान भी हैं, से प्रतीत होता है कि सम्भवतः बाह्य आक्रमण के कारण ही इस सभ्यता का पतन हुआ, चाहे यह आक्रमण आर्यो अथवा किसी अन्य जाति का रहा हो।

यद्यपि सिन्धु सभ्यता का पूर्ण रूप से विनाश हो गया, किन्तु सिन्धु-संस्कृति कभी भी पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हुई।

सिन्धु-संस्कृति ने आर्यों की संस्कृति को अनेक क्षेत्रों में प्रभावित किया। यही नहीं, आर्यों की संस्कृति को प्रभावित करके सिन्धु-संस्कृति ने अप्रत्यक्ष रूप से आधुनिक हिन्दू-धर्म पर भी अपनी छाप छोड़ी।

सिन्धु-सभ्यता का सर्वाधिक प्रभाव धर्म के क्षेत्र में ही हुआ, पिगट तो यहां तक मानते हैं कि हिन्दू-समाज पर संस्कृत बोलने वाले आक्रान्ताओं से अधिक हड़प्पा सभ्यता का प्रभाव पड़ा।

सिन्धु सभ्यता व वैदिक सभ्यता में अन्तर –

सिन्धु व वैदिक सभ्यता में निम्नलिखित अंतर दिखाई पड़ते है –

सिंधु घाटी सभ्यता वैदिक सभ्यता
नगरीय सभ्यता थी।ग्रामीण सभ्यता थी।
लगभग 5,000 वर्ष प्राचीन है।लगभग 3,000 वर्ष प्राचीन है।
लोग काले रंग के थे।लोग गोरे तथा आर्य थे।
गणतन्त्रात्मक शासन पद्धति थी।राजतन्त्रात्मक शासन पद्धति थी।
लोहे से अपरिचित थे।लोहे से परिचित थे।
घोड़े से अपरिचित थे।अश्वों का प्रयोग करते थे।
विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध था।विदेशों से सम्बन्ध नहीं थे।
लेखन कला का ज्ञान था।लेखन कला का ज्ञान नहीं था।
प्रमुख पशु सांड था।प्रमुख पशु गाय थी।

सिंधु घाटी सभ्यता प्रश्नोत्तरी –

सिंधु घाटी सभ्यता की खोज कब हुई

सिंधु घाटी सभ्यता की खोज, वर्ष 1921 में हुई थी।

सिंधु घाटी सभ्यता की खोज किसने की

सिंधु घाटी सभ्यता की खोज दयाराम साहनी और राखालदास बनर्जी ने की थी।

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल, बलूचिस्तान, सिंध, पंजाब, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और गुजरात माने जानते है।

सिंधु घाटी सभ्यता की कला

सिंधु घाटी सभ्यता में, चित्रकला, मूर्तिकला, भवन निर्माण कला, संगीत और नृत्यकला आदि प्रचलित थी।

सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार

सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार, बलूचिस्तान, सिंध, पंजाब, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और गुजरात तक माना जाता है।

सिंधु घाटी सभ्यता का मुख्य व्यवसाय क्या था

सिंधु घाटी सभ्यता का प्रमुख व्यवसाय, कृषि, पशुपालन, कपड़े बुनना आदि था।

Sindhu Ghati Sabhyata Kya Hai | Sindhu Ghati Sabhyata Ki Visheshta | सिंधु घाटी सभ्यता इन हिंदी

Summary –

हड़प्पा सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है, इस सभ्यता की खोज 1921 ई. में रायबहादुर साहनी ने की थी।

इस सभ्यता का समय 2500 ई. पू. से 1500 ई. पू. माना जाता है, दुर्भाग्यवश अभी तक इस सभ्यता की लिपि को पढ़ा नहीं जा सका है।

मुद्राओं पर अंकित शब्दों के अतिरिक्त कोई अन्य लिखित सामग्री, जो सिन्धु सभ्यता पर प्रकाश डाल सकती, उपलब्ध नहीं है और मुद्राओं पर लिखित भाषा को भी अनवरत प्रयत्नों के उपरान्त भी अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।

हड़प्पा सभ्यता बलूचिस्तान, सिन्ध, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश व गुजरात तक विस्तृत थी।

तो दोस्तों, सिंधु घाटी सभ्यता के इतिहास के बारे में यह लेख आपको कैसा लगा हमने जरूर बताएं नीचे कमेन्ट बॉक्स में, यदि आपके पास इससे संबंधित कोई सवाल या सुझाव हो तो उसे भी जरूर लिखे, इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शेयर करना न भूलें, धन्यवाद 🙂

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